©© मैं ग़ुलाम हूँ..©©
पंद्रह अगस्त को हर साल संक्रांत-सा आज़ाद हो जाता हूँ
बाकी साल दिमाख से सोचना भी मेरे हाथ नहीं
गाँव शहर, हर शख्स, मैं ग़ुलामी में मर जाता हूँ
शुद्ध अनाज, दवा की कीमत भी मेरे हाथ नहीं
जश्न बेवजह के ग़ुलामी के मनाता आया हूँ
खुद की तरक्की की बात करना बरबाद करें सहीं
षडयंत्र में पाबन्द आज़ाद कहलाता आया हूँ
मुँह कान आँखें है मेरी मगर मेरी लगती नही
ग़ुलाम हूँ पथ्थर और पशु को पूजता हूँ
इंसान को मरने के बाद और किताबें बचपन में पूजी कहीं
ग़ुलाम हूँ इसीलिए इंसान होने से डरता हूँ
ग़ुलामी में समाधान, है ग़ुलामों के हाथ सही
योजनाएं मेरी नहीं, कार्यालय मंत्रालय मेरे नहीं
शिक्षा, बैंक, उद्यम, कला जगत, स्वतंत्रता भी मेरे हाथ नहीं
खाने में मिलावट, हर फैक्टरीने मिट्टी में घौला है ज़हर
बिना अस्पताल की सेहती कोई मेरी शाम नहीं
वोटिंग में सिर्फ गिनती के लिए जाता हूँ
इलेक्शन मशीन का रिमोट भी हाथ नही
हलकीं जात भारी कह के इतनी दूरियां बढ़ा दी
शादी को सदियों से आत्माएं भटकी करोडों, पर जात जाती नही
तेरी हड्डियाँ भी कहीं और बहा दी जायेगी
ऐ "चारागर" तेरी लाश भी यहाँ आज़ाद नहीं
- चारुशील माने (चारागर)
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