सोमवार, 28 अगस्त 2023

ज़हर भी देते है

 लोग जहर भी देते है

तो मिठे में डालकर

धोखा भी शिद्दत से

प्यार जताकर


बेवफाई की भी हद

 बेवफाई की भी हद होती है,

जरा सी जेब क्या गर्म मिली

पहचान की रस्म बदल गई

रूह भी मिली तो बेशर्म मिली



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- charusheel mane

मैं कहाँ शायर था

 मैं कहाँ शायर था,

ना चाहत का मारा था

 बस दर्द की ख़ामोशीने

लिखना सीखा दिया- 

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हैफ़-सा नुक़्ता


सफ़र में इस मैं वक़्त, किस जगह हूँ ......

ज़ाईल होता हूँ, जहाँ से शुरु होता हूँ .......
कुछ समझते है, हँसाता-रुलवाता हूँ ।।..........
मक़ाम नहीं कोई, क़स्द का वक़्त हूँ ...........
आकाश गंगा से समंदर तक ............
सर-ता-सर, बस् हैफ़-सा नुक़्ता हूँ ।।.........
- चारुशील माने (चारागर)
....................कविता का भाव...............

आपकी कविता वक्त के मुद्दे और इसके मानव अनुभव पर विचार करती है। यहां मेरा विश्लेषण है: आपकी कविता "सफर में इस मैं वक्त, किस जगह हूँ" के उच्चारण से शुरू होती है। इस लाइन के माध्यम से यह सूचित किया जाता है कि वक्त हमारे अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और सदैव आगे बढ़ता रहता है। अगली पंक्ति, "ज़ाईल होता हूँ, जहाँ से शुरु होता हूँ," वक्त की चक्रवाती प्रकृति की प्रतिष्ठा को प्रकट करती है। यह इस संकल्प को दर्शाती है कि वक्त का कोई निर्धारित अंत नहीं है; बल्कि, यह एक अविरल चक्र है, जहाँ अंत शुरुआत के साथ सुंदरतापूर्ण रूप से मिलता है। अगली पंक्ति, "कुछ समझते है, हँसाता-रुलवाता हूँ," यह सुझाव देती है कि वक्त के आदान-प्रदान से लोग विभिन्न भावनाओं को जोड़ते हैं। वक्त द्वारा अनुभवित यह भावनाएं लोगों की समझ को आकर्षित करती हैं। पंक्ति "मक़ाम नहीं कोई, क़स्द का वक़्त हूँ आकाश गंगा से समंदर तक सर-ता-सर, बस् हैफ़-सा नुक़्ता हूँ ।। इस पंक्ति में, "मक़ाम नहीं कोई, क़स्द का वक़्त हूँ," एक दिलचस्प परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत होता है। इसमें संकेत दिया जाता है कि वक्त खुद का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं रखता है; बल्कि, यह व्यक्ति की इच्छाओं और मकसदों से प्रभावित होता है। आगे कहीं यह व्यक्त किया जाता है, "आकाश गंगा से समंदर तक सर-ता-सर, बस् हैफ़-सा नुक़्ता हूँ।" यह वाक्य आपके द्वारा प्रयुक्त तारीफ़ायी भाषा के माध्यम से वक्त की अस्तित्व की व्यापकता को दर्शाता है। वक्त को एक बिंदु के रूप में चित्रित किया जाता है, जो सभी विशाल स्थानों को आवरण करता है। यह एक संक्षेप में यह सुझाता है कि वक्त सभी विषयों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, चाहे वह आकाश हो या समुद्र। आपकी कविता वक्त के अद्वितीय स्वरूप को दर्शाती है और यह सुंदरत .....................................कविता का विश्लेषण.....................................
आपकी कविता मनोबलदायक है जो समय के विचारों को व्यक्त करती है। आपने वक्त को एक निरंतर यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें यह साबित होता है कि वक्त का व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होता है। आपकी कविता वक्त की स्वाभाविक चक्रवाती प्रकृति को प्रस्तुत करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि हर अवधि एक नई शुरुआत की ओर बढ़ रही है। आपने कविता के माध्यम से यह संकेत दिया है कि वक्त के साथ हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न भावनाएं आती हैं, जैसे हँसी और रोना। यह सुझाव देता है कि वक्त न सिर्फ हमारे अनुभवों का केंद्र होता है, बल्कि उसका आगे बढ़ने का तरीका भी हमारे भावनाओं पर निर्भर करता है। वक्त को एक विश्वव्यापी और निरंतर उपस्थिति के रूप में चित्रित करके, आपने उसकी अमिटता को प्रकट किया है। आपकी कविता में वक्त को "नुक़्ता" के रूप में चित्रित करके आपने उसकी छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाया है, जो सभी घटनाओं की मूलभूतता को सूचित करता है। कुल मिलाकर, आपकी कविता वक्त के रहस्यमयी स्वरूप को एक रूपरेखा में प्रस्तुत करती है, जो हमारे जीवन की गहराईयों में घटित होने वाली प्रक्रियाओं को प्रकट करती है।

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

फासले fasle @dardkisyahi

फासले यह जमीन बढाती नहीं

फ़ासलों को तो यह जमीर बढ़ा देता है

 ज़र, ज़मीन ज़ेवरात तो नहीं मारते 

हौसलों को, बस यह जमीर मार देता है

- charusheel mane 

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शनिवार, 15 अगस्त 2015

मैं ग़ुलाम हूँ - Main Ghulam Hun चारुशील माने (चारागर)


©©  मैं ग़ुलाम हूँ..©©


पंद्रह अगस्त को हर साल संक्रांत-सा आज़ाद हो जाता हूँ
बाकी साल दिमाख से सोचना भी मेरे हाथ नहीं

गाँव शहर, हर शख्स, मैं ग़ुलामी में मर जाता हूँ
शुद्ध अनाज, दवा की कीमत भी मेरे हाथ नहीं

जश्न बेवजह के ग़ुलामी के मनाता आया हूँ
खुद की तरक्की की बात करना बरबाद करें सहीं

षडयंत्र में पाबन्द आज़ाद कहलाता आया हूँ
मुँह कान आँखें है मेरी मगर मेरी लगती नही 

ग़ुलाम हूँ पथ्थर और पशु को पूजता हूँ
इंसान को मरने के बाद और किताबें बचपन में पूजी कहीं

ग़ुलाम हूँ इसीलिए इंसान होने से डरता हूँ
ग़ुलामी में समाधान, है ग़ुलामों के हाथ सही

योजनाएं मेरी नहीं, कार्यालय मंत्रालय मेरे नहीं
शिक्षा, बैंक, उद्यम, कला जगत, स्वतंत्रता भी मेरे हाथ नहीं

खाने में मिलावट, हर फैक्टरीने मिट्टी में घौला है ज़हर
बिना अस्पताल की सेहती कोई मेरी शाम नहीं

वोटिंग में सिर्फ गिनती के लिए जाता हूँ
इलेक्शन मशीन का रिमोट भी हाथ नही

हलकीं जात भारी कह के इतनी दूरियां बढ़ा दी
शादी को सदियों से आत्माएं भटकी करोडों, पर जात जाती नही

तेरी हड्डियाँ भी कहीं और बहा दी जायेगी
ऐ "चारागर" तेरी लाश भी यहाँ आज़ाद नहीं
              - चारुशील माने (चारागर)
         

रविवार, 19 जुलाई 2015

Zindagi Mar Mite ज़िन्दगी मर मिटे

Zindagi Mar Mite ज़िन्दगी मर मिटे

ज़िन्दगी मर मिटे जिसपे
दूर-दूर वो जाते है
दूर-दूर वो जाते है
ज़िन्दगी मर मिटे जिसपे

ज़िन्दगी की हर दहलीज पे
खीँच के जिसको लाते है
ज़िन्दगी मर मिटे जिसपे

जो ना रास्ते चाहते है
क़दमों में पड़े रहते है
जिस रस्ते से जाना चाहते है
उन राहों के कोई
निशाँ ना मिलते है

ज़िन्दगी मर मिटे जिस पे
दूर-दूर वो जाते है
ज़िन्दगी मर मिटे जिसपे ...
         ---चारुशील माने  (चारागर)